The rudra form of Shiva is virbhadra

*The Rudra form of Shiva is Virbhadra*
This incarnation happened when the son of Brahma Daksh organized a yagya but did not call Lord Shiva in it. While Satti, daughter of Daksh was married to Shiva. On knowing the sacrifice, Sati also asked to walk there but Shiva refused to invite without invitation. Still Sati insisted on leaving alone alone. When he saw Shiva's insult and humiliation at his father's house, he was also angry and he jumped into the yagya wadhiidhi and renounced his body. When Lord Shiva came to know this, he uprooted a jata from his head in anger and thrown him on the mountain ragingly. Mahabhanikar Virbhadra was revealed from the forearms of that jata.

 It is also mentioned in scriptures-

 Furious: Best Practices: Suddenly, Tigrrochants

 Uttrishya Rudra: Sahasostitheo Hassan Gribnina Nahin, I

 Tetocyte breastbucus splinter - Shrimad Bhagwat - 4/5/1

 That is, sadly, after leaving the life of Sati, sad Lord Shiva took a formidable look and chewed his lips in anger, which was burning like a light and light flame. Standing up, he threw the jata with the eight eighteen on the earth. This is the great form of Virbhadra revealed.

 The Virbhadra incarnation of Lord Shiva has great importance in our lives. This incarnation gives us a message that use power only where it is utilized. There are two classes of heroes - gentlemen and abusive heroes

 Ram, Arjun and Bhim were heroes. Ravana, Duryodhana and Karna were heroes but the first Bhadra (civilized) heroic class and the second abusive (uncultivated) heroic class. The work of civilized heroes is always to walk on the path of religion and to help the helpless. On the other hand, the savage heroes always walk on the path of unrighteousness and harass the disabled. Bhadra means welfare. Therefore, with the bravery, the inevitability of goodness is expressed by this incarnation. "





*शिव का रौद्र रूप है वीरभद्र*
यह अवतार तब हुआ था जब ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया लेकिन भगवान शिव को उसमें नहीं बुलाया। जबकि दक्ष की पुत्री सती का विवाह शिव से हुआ था। यज्ञ की बात ज्ञात होने पर सती ने भी वहां चलने को कहा लेकिन शिव ने बिना आमंत्रण के जाने से मना कर दिया। फिर भी सती जिद कर अकेली ही वहां चली गई। अपने पिता के घर जब उन्होंने शिव का और स्वयं का अपमान अनुभव किया तो उन्हें क्रोध भी हुआ और उन्होंने यज्ञवेदी में कूदकर अपनी देह त्याग दी। जब भगवान शिव को यह पता हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए।

 शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है-

 क्रुद्ध: सुदष्टष्ठपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्व ह्लिस टोग्ररोचिषम्।

 उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥

 ततोऽतिकाय स्तनुवा स्पृशन्दिवं। - श्रीमद् भागवत -4/5/1

 अर्थात सती के प्राण त्यागने से दु:खी भगवान शिव ने उग्र रूप धारण कर क्रोध में अपने होंठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली, जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी। सहसा खड़े होकर उन्होंने गंभीर अठ्ठाहस के साथ जटा को पृथ्वी पर पटक दिया। इसी से महाभयंकर वीरभद्र प्रगट हुए।

 भगवान शिव के वीरभद्र अवतार का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। यह अवतार हमें संदेश देता है कि शक्ति का प्रयोग वहीं करें जहां उसका सदुपयोग हो। वीरों के दो वर्ग होते हैं- भद्र एवं अभद्र वीर।

 राम, अर्जुन और भीम वीर थे। रावण, दुर्योधन और कर्ण भी वीर थे लेकिन पहला भद्र (सभ्य) वीर वर्ग और दूसरा अभद्र (असभ्य) वीर वर्ग है। सभ्य वीरों का काम होता है हमेशा धर्म के पथ पर चलना तथा नि:सहायों की सहायता करना। वहीं असभ्य वीर वर्ग सदैव अधर्म के मार्ग पर चलते हैं तथा नि:शक्तों को परेशान कर�

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